स्वयं विरुद्ध अहं
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न समझा 'स्वयं' को मैं,
जब 'अहं' की घटा छाई।
वो आए और चले गए,
अब यहाँ बस रुसवाई।।
एक 'चाँद' था, तारे भी थे,
इधर हम थे हरजाई।
सुबह की लालिमा के लिए,
हमने जागते रात बिताई?
चलना जब सीख रहे थे,
पंखो पर नज़र अटक आई ।
उड़ने की ख्वाइश में,
हमने चाल अपनी गंवाई॥
अब न रहे दोस्त 'वो',
अब न रहा वक्त 'वो'।
अपनी ही जिद के बदले,
ये क़यामत हमने पायी!
न समझा 'स्वयं' को मैं,
जब 'अहं' की घटा छाई।
वो आए और चले गए,
अब यहाँ बस रुसवाई।।